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बाबा साहब अम्बेडकर की दृष्टी में मनुवाद (भाग 1)

मनुवाद आश्चर्यजनक रूप से आज भी चर्चा में है। बाबा साहब अम्बेडकर के हाथ से लिखी एक पांडुलिपि में मनु के अछूत विरोधी सिद्धान्तों का विस्तार से उल्लेख है। बाबा साहब के अनुसार हिन्दू सामजिक व्यवस्था वर्णों और व्यक्तियों के बीच की असमानता पर आधारित है। बाबा साहब अपने काल तक मनु के सिद्धांतो को जीवित देखते।

उनके अनुसार पेशवा राज में अछूतों को पूना में शाम के तीन बजे से सवेरे नौ बजे तक घुसने की इजाजत नहीं थी। तब शरीर की छाया लंबी होती है। यदि ये छाया किसी ब्राम्हण पर पड़ जाती तो वह अपवित्र हो उठता – इससे बचने के लिये अछूतों पर रोक लगा दी गयी। जानवर या कुत्ते नगर में आराम से घूमते पर अछूत समाज नहीं।

अछूत जमीन पर थूक नहीं सकते थे। उन्हें थूकने के लिये गले में मिट्टी का बर्तन टांग कर चलना पड़ता। यदि उनके थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाता तो वह अपवित्र हो उठता न, इसीलिये। उसे एक काँटेदार झाड़ी से जमीन को साफ़ करते हुए चलना पड़ता। ताकि उसके पैरों के निशान साफ़ हो जाएँ। यदि कोई ब्राम्हण सामने से आ जाता तो अछूत धरती पर मुँह रख कर लेट जाता ताकि उसके शरीर की छाया ब्राम्हण को छूकर अपवित्र न कर दे।

महाराष्ट्र में शूद्र को गले में या कमर में काल धागा पहनना पड़ता ताकि उसको पहचाना जा सके। गुजरात में पहचाना जा सकने के लिये गले में सींग लटकाना पड़ता। पंजाब में अछूत को काँख में झाड़ू दबाकर घूमना पड़ता। बम्बई के अछूतों को सिर्फ़ फटे पुराने कपडे पहनने की इजाजत थी। यदि उन्हें कपड़ा बेचा जाता तो दुकानदार उसे फाड़ पुरना कर देता। मालाबार में अछूत एक मंजिला से ऊपर घर नहीं बना सकते थे, न ही वह अपने मुर्दों का दाह संस्कार कर सकते थे। उन्हें छाता लेकर चलना मना था, जूता या सोने के गहने पहनने की इजाजत नहीं थी। वे दूध भी नहीं दुह सकते थे। दक्षिण भारत के अछूतों को शरीर के कमर के ऊपर के हिस्से में कपड़ा पहनने की मनाही थी।इसी तरह उनकी स्त्रियों को भी कमर के ऊपर का हिस्सा बिना ढके रहना पड़ता।

बम्बई प्रेसीडेंसी में तो सुनारों की ये हालत थी कि वे चुन्नट लगाकर धोती नहीं पहन सकते। वे एक दूसरे को “नमस्कार” नहीं कह सकते। मराठा शासन में ब्राम्हणों के अतिरिक्त अन्य कोई वेद मन्त्रों का उच्चारण नहीं कर सकता। करता तो उसकी जीभ काट दी जाती। अनेकों सुनारों की जीभ पेशवाओं ने इस कारण कटवा डाली कि उन्होंने वेद मंत्रों का उच्चारण करने का दुस्साहस किया।

पूरे देशभर में ब्राम्हणों को मृत्युदंड हत्या करने पर भी नहीं दिया जा सकता था। पेशवाशाही में दंड जाति के आधार पर तय होता, न कि अपराध के आधार पर। कठोर श्रम और मृत्युदंड सिर्फ अछूतों को मिलता।

पेशवाशाही में ब्राम्हण पर न्यूनतम कर लगता। अछूत पर सबसे ज्यादा कर लगाया जाता। यही हाल बंगाल में भी था।

मनु जब कभी जन्मे हों, पर हर हिन्दू शासन नें उन्हें ज़िंदा रखा। हिन्दू सवर्ण या अछूत का न्याय मनु के कानून के आधार पर होता। ये क़ानून जतिगत विषमता पर आधारित था। इस क़ानून ने ब्राम्हणों को हर विशेषाधिकार दिया और शूद्र से हर मानवोचित अधिकार छीन लिया। ब्राम्हण जन्म से सर्वश्रेष्ठ होता और अछूत सबसे नीच। अछूत की किसी भी योग्यता का कोई मतलब था ही नहीं।

ब्राम्हणों का राज्य की हर व्यवस्था पर एकाधिकार था। देशभर की यही स्थिति थी। इसीलिये गैर ब्राम्हण पार्टियों ने न्यूनतम योग्यता के आधार पर जातिगत अनुपात में राज्य की सेवा में भाग का उचित सिद्धांत रक्खा।

राज्य को ठीक से चलाने के लिये हर जाति का अनुपातिक आधार पर प्रतिनिधत्व होना ही जरुरी है।

गैर ब्राम्हण पार्टियां मनुस्मृति को उलटा कर ब्राम्हणों को वहाँ खड़ा कर रही हैं जहाँ मनु ने शूद्रों को खड़ा किया। मनु ने जन्म के आधार पर ब्राम्हणों के विशेषाधिकार सुनिश्चित किये , शूद्रों को योग्य होने पर भी वंचित किया। अब बारी ब्राम्हणों की है।

ये असमानता हिंदुओं में ही नहीं, पूरी दुनिया में फ़ैली है। इसने समाजों को ऊँच, नीच, मुक्त और गुलामों में बाँट डाला है।

[बाबासाहब अम्बेडकर लेख एवं भाषण, बारहवां खंड, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार द्वारा 1993 में प्रकाशित, से, साभार।]

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